आज धुलिवंदन
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आपल्या महाराष्ट्रात तरी हा सण साजरा करत असतील का कधी ऐकलेलं नाही।
धुलिवंदनाच्या दिवशी काही ठिकाणी रंगपंचमी साजरी केली जाते ।
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१. धूलिवंदन
होली ब्रह्मांडका एक तेजोत्सव है । होलीके दिन ब्रह्मांडमें विविध तेजोमय तरंगोंका भ्रमण बढता है । इसके कारण अनेक रंग आवश्यकताके अनुसार साकार होते हैं । तथा संबंधित घटकके कार्यके लिए पूरक एवं पोषक वातावरणकी निर्मिति करते हैं । इन रंगोंका स्वागत हेतु होलीके दूसरे दिन ‘धूलिवंदन’ का उत्सव मनाया जाता है ।
२. धूलिवंदन का महत्त्व
२ अ. त्रेतायुग के आरंभ में श्रीविष्णुद्वारा अवतार कार्य के आरंभ की स्मृति मनाना
त्रेतायुग के आरंभ में पृथ्वीपर किए गए पहले यज्ञ के दूसरे दिन श्रीविष्णु ने यज्ञस्थल की भूमि को वंदन किया एवं वहां की मिट्टी दोनों हाथोंमें उठाकर उसे हवा में उडाया अर्थात श्रीविष्णुने विभिन्न तेजोमय रंगोंद्वारा अवतार कार्य का आरंभ किया । उस समय ऋषि-मुनियोंने यज्ञ की राख अर्थात विभूति शरीरपर लगाई । तब उन्हें अनुभव हुआ कि यज्ञ की विभूति पावन होती है । उसमें सभी प्रकार के रोग दूर करने का सामर्थ्य होता है । इसकी स्मृति के लिए धूलिवंदन मनाया जाता है । इसे शिमगा भी कहते हैं ।
२ आ. अग्नितत्त्व का लाभ प्राप्त करना
होली के दिन प्रज्वलित की गई होली में प्रत्यक्ष अग्निदेवता उपस्थित रहते हैं । उनका तत्त्व दूसरे दिन भी कार्यरत रहता है । इस तत्त्व का लाभ प्राप्त करने हेतु तथा अग्निदेवता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु होली के दूसरे दिन अर्थात फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा को सुबह होली के राख की पूजा करते है । उसके उपरांत उस राख को शरीरपर लगाकर स्नान करते हैं । इसे धूलिवंदन कहते है ।
३. धूलिवंदन कैसे मनाए ?
अ. सूर्योदय के समय होली के स्थानपर पहुंचे ।
आ. होलीपर, दूध एवं पानी छिडककर उसे शांत करें ।
इ. होलीकी विभूति को वंदन कर प्रार्थना करें …
वन्दितासि सुरेन्द्रेण ब्रह्मणा शङ्करेण च ।
अतस्त्वं पाहि नो देवि भूते भूतिप्रदा भव ।।
अर्थ : हे धूलि, तुम ब्रह्मा-विष्णु-महेशद्वारा वंदित हो, इसलिए भूते देवी, तुम हमें ऐश्वर्य देनेवाली बनो एवं हमारी रक्षा करो ।’
ई. पश्चात् नीचे बैठकर होलीकी विभूतिको अंगूठा तथा अनामिकाकी चुटकीमें लेकर अनामिकासे अपने माथेपर अर्थात आज्ञाचक्रपर लगाएं ।
उ. उसके उपरांत वह विभूति पूरे शरीरपर लगाएं ।
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