शाम भी कोई जैसी है नदी
लहर लहर जैसे बह रही है
कोई अनकही, कोई अनसुनी
बात धीमी धीमी कह रही है
कहीं ना कहीं जागी हुई है कोई आरज़ू
कहीं ना कहीं खोए हुए से हैं मैं और तू
के बूम बूम बूम पारा पारा
है खामोश दोनो
के बूम बूम बूम पारा पारा
है मदहोश दोनो
जो गुमसुम गुमसुम है यह फ़िज़ायें
जो कहती सुनती है यह निगाहें
गुमसुम गुमसुम है यह फ़िज़ायें है ना
यह कैसा समय है, कैसा समा है
के शाम है पिघल रही
यह सब कुछ हसीन है, सब कुछ जवान है
है ज़िंदगी मचल रही, जगमगाती जिलमिलती
पलक पलक पे ख्वाब है
सुन यह हवायें गुनगुनाए
जो गीत लाजवाब है
के बूम बूम बूम पारा पारा
है खामोश दोनो
के बूम बूम बूम पारा पारा
है मदहोश दोनो
जो गुमसुम गुमसुम है यह फ़िज़ायें
जो कहती सुनती है यह निगाहें
गुमसुम गुमसुम है यह फ़िज़ायें है ना
जावेद अख्तर
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