"आ मृत्यु...आ...तू आ"
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83 वर्ष की आयु में वीर सावरकर ने हिन्दू साधुओं की प्राचीन परंपरा अपनाकर, 1 फरवरी, तिथि माघ शुक्ल एकादशी को अन्न, जल और दवाइयों का त्याग कर दिया। उनका कहना था, "जब जीवन मिशन पूरा हो जाए, और समाज की सेवा करने लायक ताकत न बचे, तब मृत्यु का स्वयं वरण कर लेना चाहिए, बजाय इसके कि मृत्यु की प्रतीक्षा की जाए।" गीतोक्त कछुआ बनने का जिस योगी ने आजीवन अभ्यास किया, अंतिम समय अब स्वयं को समेटना शुरू कर दिया। जो मृत्यु दो आजीवन कारावास पाए उस निहत्थे व्यक्ति के पास आने का साहस नहीं कर पा रही थी, अंततः स्वयं उसी ने मृत्यु की विवशता देख उसे अपने पास बुला लिया। इसे उस साधु ने आत्मार्पण नाम दिया था।
अन्न, जल और दवाई के बिना 26 दिन के कठोर उपवासपूर्वक अपना नश्वर देह छोड़ने से पूर्व सावरकर ने एक कविता लिखी थी, जिसके एक अंश का हिंदी अनुवाद नीचे है।
"आ मृत्यु आ तू आ
आने के लिए निकली ही होगी
तो आ भी जा अभी
मुरझाने के डर से
डर जाएं फूल
अंगूर भी रस भीने
सूख जाने से
डर जाऊं क्यों तुझसे मैं
किसलिए
मेरे इस प्याले में पीते पीते
कभी न खत्म होने वाली है भरी
आंसुओं की मदिरा
बस मेरे लिए
आ यदि तू भूखी है
नैवेद्य के लिए
और अभी दिन यद्यपि यौवनयुक्त
फिर भी मेरे सारे छोटे मोटे काम
खत्म हो चले हैं
किसी तरह कर जुगाड़
ऋण चुकता किया
जन्मार्जित जो जो सब
ऋषिऋण के लिए
श्रुति जननी चरण तीर्थसेवन करके
और आश्रय करके सन्तों के ध्रुवपद का
और आशा के श्मशान में
आचरण की एक घोर तपस्या
देव ऋण के लिए
रणवाद्य बजा बजाके धड़र धड़र
और बढ़ आगे हमला कर
ठीक उसी क्षण को
जब होगी प्रभु की प्रथम रणआज्ञा
और रण यज्ञ अग्नि में
जले अस्थि अस्थि मांस मांस
ईंधन जैसे
आ मृत्यु आ
आने के लिए
निकली ही होगी घर से
तो आ भी जा अभी"
वो पूछ रहे हैं, री मृत्यु! डर जाऊं क्यों तुझसे? तू स्वयं मुझसे डरी है, मैं तुझ से नहीं। कालेपानी का कालकूट पीकर, काल के कराल स्तंभों को झकझोर कर मैं बार बार लौट आया हूँ और आज भी जीवित हूँ। हारी तू मृत्यु है मैं नहीं। पर यह विखण्डित स्वतंत्रता मेरे अंतर्मन को 19 साल बाद अब भी चीर रही है, आज़ादी के बाद तो गाली और उपेक्षा ही इस जीवित हुतात्मा का नया कालापानी बन गई हैं। उनके आंसुओं की मदिरा अभी खत्म नहीं हुई है। उपेक्षा और तिरस्कार ऐसा कि मौत के बाद भी सावरकर की मृत्यु पर एक दिन का भी राजकीय शोक घोषित नहीं हुआ, महाराष्ट्र का एक भी कैबिनेट मंत्री उनकी अंत्येष्टि में शामिल नहीं हुआ, लोकसभा स्पीकर द्वारा सदन में उन्हें श्रद्धांजलि देने का निवेदन खारिज कर दिया गया, नेहरू ने सेल्युलर जेल तुड़ाकर हॉस्पिटल बनाने की बात कही थी।
83 की आयु में 26 दिन शरीर सुखाकर सावरकर स्वयं को अब भी यौवनयुक्त पा रहे हैं, आजादी के हर पन्ने पर खड़े होकर कह रहे हैं, छोटे मोटे काम तो पूरे हो गए!! वेदमाता के चरण पकड़कर, तीर्थों के तीर्थ उस अंडमान का सेवन कर और सन्तों के चरणचिन्हों पर चलकर जन्मों जन्मों में अर्जित किया ऋषिऋण किसी तरह जुगाड़ करके चुकता कर रहा हूँ। हिंदुत्व की असीमित आशाओं के निर्जन वन में किया तपस्याचरण ही मेरा देव ऋण चुकता करेंगे। अब रण वाद्य बजाकर आ जा, प्रभु की इच्छा से क़ि अब मैं जीवन का क्षण क्षण होम कर देने के बाद यह बची खुची देह भी आहूत कर दूं। आ मृत्यु आ, तेरा अब वरण कर लूं... इसी के बाद मृत्यु को सावरकर प्राप्त हुए...
अगर ये तपस्वी ये योगी ये तीन ऋणों को चुकता करने वाले आत्मिकोपवीत सावरकर नास्तिक हैं, तो कोई भी आस्तिक नहीं है, कोई भी नहीं...
~~ मुदित मित्तल
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